॥जय गौर हरि॥
वृन्दावन में मदनमोहन जी के मंदिर के निकट किसी कुटिया में बाबा रहते थे। उनका नाम कोई नहीं जानता। सभी लोग उन्हें मदनटेर वाले बाबा जी के नाम से जानते थे क्योंकि वे मदनटेर पर ही रहते थे। वे सुबह होते ही मदनटेर के सघन कुंजों में जा बैठते। दिन भर राधा कृष्ण की लीलाओं का स्मरण करते हुए अश्रुविर्सजन करते।
शाम के समय गोविंद जी के मंदिर में जाकर रो रोकर उन से कुछ निवेदन करते, अपनी बात मनवाने के लिए प्रार्थना करते और लौट आते। लौटते हुए दो चार घरों से कुछ मधुकरी मांग लाते और खाकर सो जाते।
मन ही मन ठाकुर जी से कुछ न कुछ मांगते रहते और रोते रहते। हर समय उनकी आंखों में आंसू होते।
एक दिन वह अपनी दृष्टि खो बैठे पर इसका उन्हें तनिक भी दुख न था। वे सोचते जो नेत्र ठाकुर जी के साक्षात दर्शन न करवा पाएं उनका न रहना ही अच्छा था।
इसी प्रकार ठाकुर और ठकुरानी के विरह में रोते-रोते बाबा को बहुत वर्ष व्यतित हो गए थे। जीवन की संध्या आ पंहुची थी। धैर्य का बांध टूट चुका था। विरह वेदना असहय हो चुकी थी। कभी कभी तो भगवान से अपनी बात मनवाने की ललक में मूर्छित हो घण्टों मदनटेर के छुरमुटों में पड़े रहते। उनसे सहानुभुति करने वाला वहां कोई न था।
एक दिन वह ठाकुर जी से मिलने की अभिलाषा में मदनटेर पर बैठे रो रहे थे। श्री राधा कृष्ण उधर से टहलते हुए आ निकले। बाबा को रोते देख श्री राधे -श्री कृष्ण से बोली," बाबा हमारी याद में रो रहे हैं। इन्हें चुप करवाओ"
श्री कृष्ण बाबा से बोले, "बाबा रो क्यों रहे हो?"
बाबा झुंझलाकर बोले," जा यहां से ग्वालिया जाकर अपनी गईयां चरा। तेरे को क्या मतलब मुझ से।"
श्री कृष्ण राधा से बोले," बाबा तो मान ही नहीं रहे हैं। अब मैं क्या करूं?"
श्री राधे बोली, "आप से न होगा, मैं अभी आती हूं।"
श्री राधे बाबा के पास गई और बोली," बाबा क्यों रो रहे हो? आपकी घरवाली मर गई है क्या?"
बाबा हंस पड़े बोले," अरे प्यारी लाली! मेरी तो घरवाली है ही नहीं।"
श्री राधे बोली," फिर क्यों रोते हो?"
बाबा बोले," मेरे जो अपने हैं वह मुझे भुल गए हैं।"
श्री राधे बोली, "वो कौन हैं बाबा?"
बाबा बोले," वही ब्रज का छलिया ! उसका भजन करते करते मैं बूढ़ा हो गया हूं, घर परिवार नहीं बसाया कहीं उसके लिए मेरा प्रेम कम न हो जाए। पर वो ऐसा है कि अपनी एक झलक तक नहीं दिखाता। राधा कृष्ण दोनों निष्ठुर हैं।"
श्री राधे चौंक गई, "मैं! मैं निष्ठुर! दूसरे ही क्षण अपने को छिपाती हुई बोली, मेरा भी नाम राधा है बताओ आप को क्या चाहिए?"
बाबा बोले, "चाहना क्या है इस जीवन में राधा कृष्ण अपनी एक झलक दिखा जाते बस और कुछ नहीं चाहिए।"
श्री राधे बोली, "बाबा आप भी कितने भोले हैं!आपकी आंखे तो है नहीं! देखोगे कैसे?"
बाबा बोले," भोली तो तू है, लाली!जब श्री राधा कृष्ण मेरे सम्मुख आएंगे तो क्या मेरी आंखों में ज्योति न आ जाएगी?"
भोली भाली श्री राधा रानी से रहा न गया। उन्होंने बारी बारी से बाबा की दोनों आंखों को स्पर्श किया और बाबा की आंखों की ज्योति आ गई।
अपने सामने श्री राधाकृष्ण के साक्षात दर्शन पाकर वे आनंद के कारण बेहोश हो गए। बेहोशी की हालत में वह रात भर वहीं पड़े रहे। भोर फटते ही कुछ लोगों ने उन्हें पहचान लिया और वे उन्हें मदनमोहन जी के मंदिर में ले गए।
मदनमोहन जी के मंदिर में प्रवेश करते ही वहां के गोस्वामी जी समझ गए कि बाबा के ऊपर मदनमोहन जी की विशेष कृपा हुई है। उन्होंने बाबा को घेरकर समस्त भक्तों के साथ मिल कर र्कीतन करना आरंभ किया। र्कीतन ध्वनी कान में पड़ते ही बाबा की चेतना लौटने लगी।
गोस्वामी जी उन्हें एकांत में ले गए और उनसे मूर्छा का कारण पूछा तो रो-रो कर उन्होंने सारी घटना का वृतांत बता दिया और बोले," मैंने भगवान को अपने प्रेम के मोहुपाश में बांध कर अपने मन की तो करवा ली मगर शायद मेरे प्रेम में ही कोई कमी रह गई थी जिससे राधा कष्ण के मिल कर बिछुड़ जानें का दुख उनके न मिलने के दुख से भी अधिक असहाय हो गया है।"
॥श्री राधारमणाय समर्पणं॥

वृन्दावन में मदनमोहन जी के मंदिर के निकट किसी कुटिया में बाबा रहते थे। उनका नाम कोई नहीं जानता। सभी लोग उन्हें मदनटेर वाले बाबा जी के नाम से जानते थे क्योंकि वे मदनटेर पर ही रहते थे। वे सुबह होते ही मदनटेर के सघन कुंजों में जा बैठते। दिन भर राधा कृष्ण की लीलाओं का स्मरण करते हुए अश्रुविर्सजन करते।
शाम के समय गोविंद जी के मंदिर में जाकर रो रोकर उन से कुछ निवेदन करते, अपनी बात मनवाने के लिए प्रार्थना करते और लौट आते। लौटते हुए दो चार घरों से कुछ मधुकरी मांग लाते और खाकर सो जाते।
मन ही मन ठाकुर जी से कुछ न कुछ मांगते रहते और रोते रहते। हर समय उनकी आंखों में आंसू होते।
एक दिन वह अपनी दृष्टि खो बैठे पर इसका उन्हें तनिक भी दुख न था। वे सोचते जो नेत्र ठाकुर जी के साक्षात दर्शन न करवा पाएं उनका न रहना ही अच्छा था।
इसी प्रकार ठाकुर और ठकुरानी के विरह में रोते-रोते बाबा को बहुत वर्ष व्यतित हो गए थे। जीवन की संध्या आ पंहुची थी। धैर्य का बांध टूट चुका था। विरह वेदना असहय हो चुकी थी। कभी कभी तो भगवान से अपनी बात मनवाने की ललक में मूर्छित हो घण्टों मदनटेर के छुरमुटों में पड़े रहते। उनसे सहानुभुति करने वाला वहां कोई न था।
एक दिन वह ठाकुर जी से मिलने की अभिलाषा में मदनटेर पर बैठे रो रहे थे। श्री राधा कृष्ण उधर से टहलते हुए आ निकले। बाबा को रोते देख श्री राधे -श्री कृष्ण से बोली," बाबा हमारी याद में रो रहे हैं। इन्हें चुप करवाओ"
श्री कृष्ण बाबा से बोले, "बाबा रो क्यों रहे हो?"
बाबा झुंझलाकर बोले," जा यहां से ग्वालिया जाकर अपनी गईयां चरा। तेरे को क्या मतलब मुझ से।"
श्री कृष्ण राधा से बोले," बाबा तो मान ही नहीं रहे हैं। अब मैं क्या करूं?"
श्री राधे बोली, "आप से न होगा, मैं अभी आती हूं।"
श्री राधे बाबा के पास गई और बोली," बाबा क्यों रो रहे हो? आपकी घरवाली मर गई है क्या?"
बाबा हंस पड़े बोले," अरे प्यारी लाली! मेरी तो घरवाली है ही नहीं।"
श्री राधे बोली," फिर क्यों रोते हो?"
बाबा बोले," मेरे जो अपने हैं वह मुझे भुल गए हैं।"
श्री राधे बोली, "वो कौन हैं बाबा?"
बाबा बोले," वही ब्रज का छलिया ! उसका भजन करते करते मैं बूढ़ा हो गया हूं, घर परिवार नहीं बसाया कहीं उसके लिए मेरा प्रेम कम न हो जाए। पर वो ऐसा है कि अपनी एक झलक तक नहीं दिखाता। राधा कृष्ण दोनों निष्ठुर हैं।"
श्री राधे चौंक गई, "मैं! मैं निष्ठुर! दूसरे ही क्षण अपने को छिपाती हुई बोली, मेरा भी नाम राधा है बताओ आप को क्या चाहिए?"
बाबा बोले, "चाहना क्या है इस जीवन में राधा कृष्ण अपनी एक झलक दिखा जाते बस और कुछ नहीं चाहिए।"
श्री राधे बोली, "बाबा आप भी कितने भोले हैं!आपकी आंखे तो है नहीं! देखोगे कैसे?"
बाबा बोले," भोली तो तू है, लाली!जब श्री राधा कृष्ण मेरे सम्मुख आएंगे तो क्या मेरी आंखों में ज्योति न आ जाएगी?"
भोली भाली श्री राधा रानी से रहा न गया। उन्होंने बारी बारी से बाबा की दोनों आंखों को स्पर्श किया और बाबा की आंखों की ज्योति आ गई।
अपने सामने श्री राधाकृष्ण के साक्षात दर्शन पाकर वे आनंद के कारण बेहोश हो गए। बेहोशी की हालत में वह रात भर वहीं पड़े रहे। भोर फटते ही कुछ लोगों ने उन्हें पहचान लिया और वे उन्हें मदनमोहन जी के मंदिर में ले गए।
मदनमोहन जी के मंदिर में प्रवेश करते ही वहां के गोस्वामी जी समझ गए कि बाबा के ऊपर मदनमोहन जी की विशेष कृपा हुई है। उन्होंने बाबा को घेरकर समस्त भक्तों के साथ मिल कर र्कीतन करना आरंभ किया। र्कीतन ध्वनी कान में पड़ते ही बाबा की चेतना लौटने लगी।
गोस्वामी जी उन्हें एकांत में ले गए और उनसे मूर्छा का कारण पूछा तो रो-रो कर उन्होंने सारी घटना का वृतांत बता दिया और बोले," मैंने भगवान को अपने प्रेम के मोहुपाश में बांध कर अपने मन की तो करवा ली मगर शायद मेरे प्रेम में ही कोई कमी रह गई थी जिससे राधा कष्ण के मिल कर बिछुड़ जानें का दुख उनके न मिलने के दुख से भी अधिक असहाय हो गया है।"
॥श्री राधारमणाय समर्पणं॥

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